Monday, 28 October 2013

आजाद मुल्क में सेक्स गुलामों का गांव

आजाद मुल्क में सेक्स गुलामों का गांव, ''सेक्स खानदानी धंधा है. '' असित जॉली आजतक -बैठेगा क्या? भरतपुर के बाहर जयपुर हाइवे पर दो किलोमीटर के एक हिस्से में ये दो शब्द साफ सुने जा सकते हैं. इसका सीधा-सा अर्थ 'सेक्स के लिए बुलावा' है. इशारा करती आंखें और अर्थपूर्ण अंदाज में हिलते हुए सिर वहां से गुजर रहे पुरुषों को सीधे-सीधे न्यौता देती हैं. तीस साल की मंजु ठाकुर इस कमाऊ पेशे का बचाव करते हुए कहती हैं, ''सेक्स हमारा खानदानी धंधा है. '' छोटे कद की लेकिन खासे दमखम वाली मंजु, राजस्थान और मध्य प्रदेश में पाई जाने वाली बेडिय़ा नाम की एक जाति से ताल्लुक रखती है. इस तबके में लड़कियां अकसर किशोरावस्था में ही समाज की सहमति से वेश्यावृत्ति के धंधे में उतार दी जाती हैं. भरतपुर के मलाहा गांव के पास कचरे से अटी सड़क के किनारे अपना धंधा चलाने वाली मंजु खासी अनुभवी हो चली हैं. उन्हें यही एक धंधा आता है. वे बताती हैं, ''मैं उस वक्त 10 या 11 साल की थी, जब मेरे बाप ने मुझे धौलपुर के एक बहुत बड़े कारोबारी के यहां भेजा था. '' जीवन के उस पहले सहवास की एवज में परिवार को 10,000 रु. मिलने की बात को वे याद करती दिखती हैं. ''बीसेक साल पहले यहां किसी लड़की को कौमार्य भंग की एवज में मिलने वाली यह सबसे ज्यादा रकम थी. '' वे फख्र के साथ यह भी बताती हैं कि आज भी किस तरह ''जयपुर के धनी-मानी कस्टमर'' उसे खोजते हुए आते हैं. पंछी का नगला नाम से पहचाने जाने वाले मलाहा गांव में आज 100 से ज्यादा बेडिय़ा स्त्रियां देह व्यापार के धंधे में हैं. कपड़ों से झांकते अंग, चेहरे पर पाउडर की परतें, गहरे लाल या बैंगनी रंग की लिपिस्टक लगाए इन महिलाओं की बेचैन निगाहें आते-जाते लोगों में अपने ग्राहक की तलाश करती दिखती हैं. 2005 में यहां बने फ्लाइओवर से बेडिय़ाओं की बस्ती दोफाड़ हो जाने के बावजूद उनके पुश्तैनी धंधे पर कोई असर नहीं पड़ा. शायद यह राजस्थान में एकमात्र ऐसी जगह होगी जहां गाड़ी वाले फ्लाइओवर का इस्तेमाल करने की बजाए नीचे वाली ऊबडख़ाबड़ सड़क से जाना पसंद करते हैं— 'दिलकश नजारा' देखने के लिए. एक दूसरे संभावित ग्राहक की आस में, गहरी लिपिस्टक लगाती मंजु कहती हैं, ''धंधा चोखा है. '' मंजु, उसकी बहनें 25 वर्षीया निशा, 24 वर्षीया रेशमा और उनकी 20 वर्षीया बुआ चांदनी मिलकर 40 लोगों का परिवार चलाती हैं. इस परिवार में उनके पांच भाई, उनकी बीवियां, बच्चे और इस धंधे से पैदा इनकी खुद की एक संतान शामिल है. मंजु की 50 वर्षीया मां सरोज कहती हैं, ''बहुत कोशिश की कि ये शादी कर लें मगर इन लड़कियों ने इस ओर कान तक न दिया. '' इस गांव के मर्द यहां की औरतों को जबरन इस पेशे में धकेले जाने के आरोप को सिरे से खारिज करते हैं. छह बहनों और दो बुआओं की कमाई पर पल रहे 37 साल के विजेंद्र साफ-साफ कहते हैं, ''जबर्दस्ती का नहीं, राजी का सौदा है ये. '' थुलथुले बदन के विजेंद्र का दावा है कि उनकी हर बहन से पहले पूछा गया था: ''धंधा करोगी या शादी?'' मंजु और निशा के 39 वर्षीय भाई लाखन भी इसमें हामी भरते हैं. एक चमचमाती मोटरसाइकिल और स्कार्पियो के मालिक लाखन कहते हैं, ''सरकार मुझे कोई ठीकठाक नौकरी दे दे तो मैं बहनों को देह व्यापार में जाने से रोक लूंगा. '' उन्हीं के पीछे खड़ी दोनों बहनों के रंगे-पुते होठों पर व्यंग्य भरी मुस्कराहट दौड़ जाती है. निशा मर्दों वाली एक कहावत दोहराती हैं 'शादी तो बर्बादी है'. बेडिय़ा मर्दों की बीवियां अमूमन इस पुश्तैनी धंधे में हिस्सा नहीं लेतीं. वे खाना पकाने, सफाई और अपनी कमाऊ 'ननदों' के बच्चों की देखभाल जैसे घरेलू कामों में वक्त बिताती हैं. निशा रूखे स्वर में बोलती हैं,''गृहस्थी का काम खच्चर का." '' निशा ने अपनी 'कामकाजी' बुआओं की कमाने और खर्चने की आजादी और घर के कामों में खटती मां को देखा है. थोड़ा हिचकते हुए वह बताती है कि वह 14 साल की उम्र में पूरी तरह से इस धंधे में उतर गई थी. 10 साल बाद अब वह एक दिन में 1,200 रु. से 2,000 रु. तक कमा लेती है. यानी रोज की सरकारी दिहाड़ी 149 रु. से दस से बीस गुना ज्यादा. एक दिन में उसे 6 से 10 पुरुषों के साथ सेक्स करना होता है. उसके मुताबिक, त्यौहारों के आसपास या फिर मजदूरों को तनख्वाह की तारीखों के आसपास यह कमाई दोगुनी तक हो जाती है. यहां लड़कियों के लिए इस 'व्यापार के गुर' सीखने में वक्त नहीं लगता. बचपन से वे देखती आ रही हैं कि सड़क किनारे चादर बांध उसके पीछे 10 मिनट में सेक्स करके बुआएं कपड़े दुरुस्त कर बाहर आ जाती हैं. मंजु बताती हैं, ''एक दफा एक ग्राहक जब टेढ़ेपन से पेश आने लगा तो उसने भाई को आवाज लगा दी. यही मेरा असली सबक था, बाकी तो देखा-सुना था.'' लेकिन हर बेडिय़ा यौनकर्मी मंजु जितनी किस्मत वाली नहीं होती. मंजु और निशा के घर से बमुश्किल 50 फुट दूर एक झोंपड़ी में रह रही 30 वर्षीया काली (बदला हुआ नाम) की मुश्किलें खत्म होने का नाम नहीं लेतीं. दो साल पहले एचआइवी ग्रस्त होने की बात पता चलने के बावजूद वह धंधा कर रही है. काली कहती है, ''मुझे और कोई काम ही नहीं आता. भाई अभी इतने छोटे हैं कि कमाने नहीं जा सकते. '' वह तुरंत जोड़ती है कि अब वह बिना कंडोम सेक्स नहीं करती. बैंकॉक स्थित संगठन ग्लोबल एलांयस अगेंस्ट ट्रैफिकिंग इन वूमैन की संस्थापक सदस्य 57 वर्षीय ज्योति संघेरा कहती हैं, ''गरीब महिलाओं के काम और उनके चयन के संबंध को समझना जरा टेढ़ी खीर है. वास्तव में हाशिये पर जी रही एक महिला के लिए 'बलात' और 'स्वैच्छिक' यौन कर्म में अंतर करना बेमानी होता है. '' पक्षी विहार के लिए मशहूर भरतपुर जिले में दूसरी बार कलेक्टर बनकर आए 34 वर्षीय नीरज कुमार पवन इन बेडिय़ा परिवारों के लिए रॉबिनहुड बनकर उभरे हैं. उनका मानना है कि सदियों पुरानी परंपरा को पुलिस डंडे के जोर पर खत्म नहीं करा सकती. आठेक साल पहले जिला प्रशासन ने बेडिय़ा बस्ती में आग लगवाकर उन्हें वहां से खदेडऩे की कोशिश की थी. एक कुप्रथा को खत्म करने की यह अमानवीय कोशिश थी. अब वहां स्कूल खोलने की इजाजत ले आए हैं. हालांकि पक्षीविहार का इलाका होने की वजह से यहां स्कूल जैसे पक्के निर्माण पर आपत्तियां उठाई गईं. खैर, यौनकर्मी 35 वर्षीया रिया को अब लगता है कि उनकी ''बेटी की जिंदगी अलग होगी. '' 11 साल की इकलौती बेटी अर्चना को रोज स्कूल भेजना अब उनकी दिनचर्या में शामिल है. रिया के लिए 'धंधा' छोडऩा आसान नहीं पर वह कहती है कि ''मेरी बिटिया वही करेगी जो वह चाहेगी. '' भरतपुर कलेक्टर की लगातार कोशिशों का नतीजा है कि मलाहा और पास के बगदारी गांव—जहां कुछ बेडिय़ा परिवार 2005 में हाइवे बनने पर चले गए थे—में बदलाव की सुगबुगाहट है. पवन का दावा है कि ''18 साल से कम उम्र की कोई लड़की यौनकर्म में शामिल नहीं. उधर अफवाह है कि दो किशोरियों के कौमार्य की कीमत डेढ़ से दो लाख रु. लग रही है. एक बेडिय़ा लड़की के विवाह करने पर इसकी आधी रकम मिलती है. बगदारी के बाहर करीब 15 बीघे में फैली झुग्गियों में रह रहे बेडिय़ाओं के लिए जिंदगी सचमुच बेहद दुश्वार है. वे बिजली-पानी के बगैर जीने को विवश हैं. गांव के स्कूल में उनके बच्चों को अलग कर दिया जाता है. ऊंची जाति के सरपंच की उन्हें वोटर या आधार कार्ड मुहैया कराने में कोई दिलचस्पी नहीं. बस्ती के शुरू में ही लोहे की दुकान चलाकर गुजर-बसर करने वाले 29 वर्षीय रवि कुमार कहते हैं, ''अपने ही वतन में हमें पराया बनाकर छोड़ दिया गया है. '' कुमार और उनकी 60 वर्षीय मां लीलावती इस बात की ताकीद करते हैं कि जब तक उनकी बिरादारी की खूबसूरत लड़कियों को सेक्स से बढिय़ा आमदनी हो रही है, तभी तक यह गाड़ी चलेगी. रवि को गहरी शिकायत भी है, ''गांव के (ऊंची जाति के) लोग जान-बूझकर हमारे बच्चों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं और हमारी ही बिरादरी की लड़कियों के साथ सोने के लिए लाइन लगाते हैं. गांव का आदमी होने की बात कहकर पूरे पैसे भी नहीं देते. महाला गांव के फ्लाइओवर के नीचे से जा रहे 20 फुट लंबे अंडरपास की कंक्रीट की दीवार पर लिखा है, ''प्यार का अनमोल तोहफा—फ्रीडम 5. पांच साल तक प्रेग्नेंसी से टेंशन फ्री. '' बेडिय़ा औरतें इस पर हंसते हुए कहती हैं, ''बच्चे तो अच्छे होते हैं. लड़कियां होगीं तो ज्यादा कमाएंगी और लड़के उनकी हिफाजत करने के काम आएंगे. ''

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