कैसी थी पारंपरिक भारतीय शिक्षा पद्धति:: इस समय हमारे देश में एक ऐसा वर्ग है जिसकी भ्रमपूर्ण सोच के अनुसार अंग्रेजों के आने से पहले देश में शिक्षा का कोई स्वरूप नहीं था तथा देशवासी असभ्य, गंवार और अशिक्षित थे। अपने लगभग दो शताब्दियों के शासनकाल में उन्होंने हमें सुसभ्य और शिक्षित बनाया। यहां इस तथ्य को क्यों नजरअन्दाज किया जाता है कि असभ्य, गंवार और अशिक्षित लोगों से कोई समाज या राष्ट्र ‘सोने की चिड़िया’ नहीं बन सकता। यदि अतीत में सब कुछ बुरा और बिगड़ा था तो साहित्य, संगीत, कला (शिल्प), दर्शन, खगोल आदि क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति कैसे हुई? शिक्षा को व्यवस्थित रूप देने के क्रम में दो प्रश्न उभरे। प्रथम ‘क्या’ सिखाया जाए तथा द्वितीय ‘कैसे’ सिखाया जाए? क्या के अन्तर्गत उन विषयों का समावेश हुआ जिनके ज्ञान से मानव समाज में उपयोगी (उत्पादक) भूमिका निभाने में सक्षम हो सके तथा उत्पादक प्रतिभा के सदुपयोग के लिये आवश्यक मानवीय चरित्र का विकास हो। अर्थात् पेशेगत कौशल की शिक्षा तथा चरित्र की शिक्षा। कैसे? का समाधान शिक्षा को गुरु या शिक्षक (अध्यापक) से जोड़कर किया गया। समय के साथ सीखने के विषय तो बदलते रहे पर गुरु या शिक्षक का महत्व नहीं बदला। वैदिक वांर्घैंमय का विशाल ज्ञान भण्डार, पीढ़ी-दर-पीढ़ी, गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से सम्प्रेषित होता रहा तथा आज भी इसका पूर्णतया लोप नहीं हुआ है। इस सन्दर्भ में आरोप लगता है कि ऐसी शिक्षा मात्र उच्च वर्ण को उपलब्ध थी तथा शूद्र इससे वंचित थे। इस बारे में यहां मेरे एक व्यक्तिगत संस्मरण का उल्लेख आवश्यक लगता है। लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के एक गांव में ठहरा था। वहां ‘बांठे’ नाम के एक मध्यम आयु के हरिजन (चमार) ने मुझे ढोलक की थाप पर अपने सुरीले स्वर में स्थानीय लोक-भाषा में सम्पूर्ण रामायण गाकर सुनाई थी। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञान, उच्च वर्ण तक सीमित नहीं था, वरन् अन्य वर्णों को भी वह सुलभ था। समाज के हर स्तर पर ज्ञान का सम्प्रेषण श्रुति (श्रवण) परम्परा के माध्यम से बहुत समय तक होता रहा। लोग भले पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे पर उनमें कृषि, शिल्प, वास्तु आदि का ज्ञान भरपूर था। परम्परागत शिक्षा में सुनना, समझना तथा करने का प्रयास शिष्य का कर्तव्य तथा सुनाना, समझाना तथा करके दिखाना गुरु का कर्तव्य था। शिक्षा में लिखने-पढ़ने का प्रयोग महाभारत काल में (लगभग पांच हजार वर्ष) हुआ। उस समय महर्षि वेदव्यास जी ने भविष्य में श्रुति परम्परा का लोप देखकर, सम्पूर्ण वैदिक वार्घैंमय को लिपिबद्ध किया और कराया। अवश्य ही लिखने-पढ़ने से जुड़ी यह शिक्षा उच्च-वर्ण तक सीमित थी। परन्तु लोक-भाषा, लोक-कला, लोकगीत संगीत, लोक-नृत्य तथा लोक साहित्य के माध्यम से ज्ञान का सम्प्रेषण चलता ही रहा। आज भी ज्ञान सम्प्रेषण की इन विधाओं का बहुत बड़ा भाग अलिखित और अपठित है। मात्र श्रवण-परम्परा के माध्यम ये इन सभी विधाओं का आज भी अस्तित्व बना हुआ है। परम्परागत शिक्षा में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अत्यन्त संवेदनशील तथा आत्मीय था। शिष्य के प्रति स्नेह गुरु का तथा गुरु के प्रति श्रद्धा शिष्य का आवश्यक गुण था। क्योंकि, गुरु से जीवन को सफल एवं विकासोन्मुख बनाने का ज्ञान मिलता था। ज्ञानार्जन के लिए गुरु-शिष्य के बीच किसी अन्य की कोई भूमिका नहीं थी। शिष्य सीधे गुरु से मिलकर ज्ञान की याचना कर सकता था तथा गुरु, शिष्य की जिज्ञासा तथा योग्यता को परखकर उसे स्वीकार करते थे। इसीलिये अतीत में ज्ञान के हर क्षेत्र में शिष्य की पहचान गुरु के माध्यम से होती थी। भले ही विश्वविद्यालय थे पर प्रवेश के लिये गुरु की स्वीकृति सर्वोपरि थी। गुरु के सन्दर्भ में यह आरोप भी लगता है कि यह गरिमामय पद मात्र ब्राह्मणों के लिये सुरक्षित था। किन्तु वास्तविकता कुछ भिन्न है। ब्राह्मण वैदिक ज्ञान राशि के भंडार थे तथा उसी के शिक्षक होने के अधिकारी थे। ज्ञान की अन्य लौकिक धारायें जैसे- शिल्प, वास्तु, संगीत, नृत्य, कला आदि पर कभी ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं रहा। इन क्षेत्रों में अन्य वर्णों के लोग भी गुरु के गरिमामय पद पर बैठने के अधिकारी थे। आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में तो शूद्रों को भी गुरु के आसन पर बैठने का पर्याप्त अवसर मिला। पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में सबसे अधिक संख्या शूद्र सन्तों की रही जिनको तत्कालीन समाज के सभी वर्णों से मान्यता मिली तथा भरपूर सम्मान भी। मीरा बाई क्षत्राणी थी और शिष्य बनी सन्त रविदास की। सन्त कबीर जुलाहे थे और बहुत सारे ब्राह्मण-क्षत्रियों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। शिक्ष
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